बंद पन्नों से है, जज्बात मेरे,
आज खोल दी है यह किताब,
और सरेआम आम रिस्ते हैं ,यह घाव मेरे
बहुत मुद्दत के बाद , आज पाया खुदको
आज ना रकीब ना हमसाया पाया तुझको।
में तो खुद में ही समाता चला गया,
हर शह, हर दीन, हर शख्स से रिश्ता छुड़ाता चला गया,
मगर यह क्या , फिर अपने अंदर भी बस पाया इनको।
जात ना थी , जज्बात ना थे,
आस ना थी , अरमान ना थे,
फिर भी इस बेहाली में ढूंढ़ता फिरा मै,
बैठा था छुप के मेरे ही अंदर,
दर दर फिरा , मगर देख ना पाया जिसको।
धरती को गले लगाया,
दुआ में हाथों को आसमान से मिलाया,
दरिया में ली डुबकी और अश्कों की बारिश में नहाया ,
किये कोसों तय , उसे मिलने के लिए,
आखिर मेरे भी इंतजार में बैठा पाया उसको,
मुद्दातों बाद , आज पाया खुद को।
- नूपुर अग्रवाल